Gyan Navratna Concept by Brahmarshi Patriji Concept | ज्ञान नवरत्न

Gyan Navratna Concept by Brahmarshi Patriji Concept | ज्ञान नवरत्न

ब्रह्मर्षि पत्रीजी कहते हैं कि जो लोग आध्यात्मिक मार्ग पर हैं, या जो इस मार्ग पर चलना चाहते हैं, उन्हें 'ज्ञान नवरत्न' की माला को धारण करना हैं। यह रत्न मालिका 'नौ रत्नों' से सुसज्जित है। जो लोग इस माला को धारण करते हैं वे ही सच्चे पिरामिड मास्टर्स हैं।

नवरत्न मालिका के ये नौ रत्न हैं -

1. आत्मा ही परब्रह्म है।

2. जीव ही देव है।

3. देह ही देवालय है।

4. श्वास ही गुरु है।

5. समय ही साधना है

6. सहनशीलता ही प्रगति है।

7. अनुभव ही ज्ञान है।

8. ज्ञान ही धर्म है।

9. धर्म ही पुण्य है।


1. आत्मा ही परब्रह्म है

वेदों में महावाक्य हैं- 'अहं' ब्रह्मास्मि.. तत् त्वमअसि श्वेत केतु .. अहम् आत्मा ब्रह्मा .. प्रज्ञानम् ब्रह्मा' ये चार वेद महावाक्य हैं। पहला है- “अहं ब्रह्मास्मि।” ब्रह्म का अर्थ हैं 'विराट मूल चैतन्य' जो सारी सृष्टि का आधार है। संस्कृत में अहम् का अर्थ है 'मैं'। 'अहं ब्रह्मास्मि' का मतलब - कि 'मैं मूल चैतन्य हूँ'। मैं मूल चैतन्य का कण हूं। मैं मूल चैतन्य की एक छोटी-सी बूँद हूँ। यह पहला महाकाव्य ऋग्वेद से है। यह हमारी नवरत्न मालिका का पहला रत्न है, जो बताता है 'आत्मा ही परब्रह्म है।'

हम जो भी 'मैं' 'मैं' 'मैं' कहते हैं वह परब्रह्म है .. जैसे घटा आकाश और चिदाकाश में कोई भेद नहीं है उसी प्रकार हममें और ब्रह्म में कोई भेद नहीं हैं। हम घट आकाश और परब्रह्म चिदाकाश है। घड़े के अंदर के खाली आकाश को घटाकाश कहते हैं और वही आकाश घट के बाहर भी है जिसे चिदाकाश कहते हैं। वास्तव में बाहर का आकाश अंदर भी मौजूद है। घटाकाश ही चिदाकाश है इनमें कोई अंतर नहीं है। जो कुछ 'मैं' (आत्मा है) हूँ वही परमात्मा या परब्रह्म है। जो लोग इसे एक सिद्धांत के रूप में समझते हैं वे 'वेदांतमूर्ति' हैं और जो इसका अनुभव करते हैं और इसे जानते हैं वे 'योगमूर्ति' हैं।


2. जीव ही देव है

जो यहाँ जीव है, वहाँ वही देव हैं। वहाँ कोई द्वैत नहीं केवल अद्वैत है यानी एकत्व। जो यह जान लेता है कि अहम् ब्रह्मास्मि वह यहाँ आनंदमय जीवन जीता है। जो खुद को मानव मात्र समझता है और भगवान कोई और है और यह समझता है कि उसकी प्रार्थना करनी है, वह जीवन में हमेशा दुखी रहता है। हमारे हाथ का ही उदाहरण लें- उँगलियाँ अलग दिखती हैं। लेकिन उँगलियों का आधार एक ही स्रोत है। आधार अद्वैत है और उँगलियाँ द्वैत हैं। हमें यह जानना है कि इस जीव में ही सब कुछ है।


3. देह ही देवालय है

जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने कहा “देहो देवालय प्रोक्ता जीवो देवो सनातन" अर्थात यह देह मंदिर है। नख से शिखा तक यह देह ही देवालय है। जीव इस देह नामक देवालय में वास करता है। इसलिए यह देवालय पवित्र है। मल और मल धारण करने वाले घर के रूप में हमें इसे अपवित्र नहीं समझना चाहिए, इसे नीच और निकृष्ट नहीं मानना चाहिए। कुछ लोग अपनी देह के बारे में ऐसा महसूस करते हैं लेकिन यह एक पवित्र मंदिर है। इसे अल्प नहीं समझना चाहिए। अपने शरीर की पवित्रता को महसूस करना और इस देवालय के अंदर बैठी आत्मा का अनुभव करना ही ‘आध्यात्मिकता' है।


4. श्वास ही गुरु है

आध्यात्मिकता के सभी सिद्धांतों को जानने के लिए व्यक्ति को 'साँस' को पकड़ना होगा। साँस प्रकृति का हिस्सा है। साँस शरीर का हिस्सा नहीं है हालाँकि शरीर प्रकृति का हिस्सा है। साँस मन का हिस्सा नहीं है लेकिन मन प्रकृति का हिस्सा है और साँस बुद्धि का हिस्सा नहीं है हालाँकि बुद्धि प्रकृति का हिस्सा है। साँस जीव का अंग नहीं है, यह परब्रह्म का अंश है। परब्रह्म के बारे में जानने के लिए हमें उसे पकड़ना होगा, जो परब्रह्म या मूल प्रकृति का हिस्सा है। अगर हमें किसी से कुछ सीखना हो तो हम उसे गुरु कहते हैं। यहाँ हमारी साँस हमें सब कुछ सिखाएगी इसलिए हम इसे गुरु मानते हैं। जब हमारी एकाग्रता अपने गुरु के पास होती है तब हम सारे आध्यात्मिक रहस्यों का अनुभव कर सकते हैं। साँस के साथ एक होना ‘योग सिद्धांत' है। अभ्यास 'साँस' से शुरू होता है।


5. समय ही साधना है

जितना अधिक आप अपने गुरु के साथ समय बिताएँगे उतना ही आप प्रबुद्ध होंगे। जितनी आपकी उम्र हो, उतने समय की साधना यानी अगर आप 15 साल के हों तो 15 मिनट की साधना, अगर आप 40 साल के हैं तो 40 मिनट की साधना करें। किसी भी चीज को सीखने के लिए समय देना पड़ता है। जितना अधिक आप अभ्यास करते हैं, आप उतने ही अधिक परिपूर्ण होते जाते हैं। समय ही साधना है। यदि आप अपना जीवन संगीत को समर्पित करते हैं तो आप एक बाल मुरली कृष्ण बन सकते हैं। यदि आप अपना पूरा जीवन क्रिकेट को समर्पित करते हैं तो आप एक सचिन तेंदुलकर बन सकते हैं। यदि आप अपना पूरा जीवन पेंटिंग के लिए समर्पित करते हैं तो आप एक लियोनार्डो दा विन्ची बन सकते हैं। यदि आप अपना पूरा जीवन लेख को समर्पित कर दें तो आप एक कालिदास बन सकते हैं। यदि आप अपना पूरा जीवन योग को समर्पित कर देंगे तो आप एक पतंजलि बन जाएँगे। यदि अपना पूरा जीवन ध्यान में लगा दें तो आप बुद्ध बन जाएँगे। इन सभी लोगों ने अपना पूरा समय अपने-अपने क्षेत्र में अभ्यास करने में समर्पित कर दिया और अपने लक्ष्य को प्राप्त किया। सभी पिरामिड मास्टर्स ने घंटों-घंटों ध्यान किया है और आनंद प्राप्त किया है।


आनंद तीन प्रकार के होते हैं-

जब जलेबी खाने से आपको खुशी मिलती है तो उसे ‘विषय आनंद’ कहते हैं।

जैसे जब आप कोई संगीत या अच्छा भजन और कीर्तन सुनते हैं तो आपको खुशी होती है यह दूसरा आनंद है 'भजन आनंद'

जब आप साधना करते हैं और सत्य को जान जाते हैं कि आप आत्मा हैं, आप ही परब्रह्म हैं तो आप 'आत्मानंद या ब्रह्मानंद' का अनुभव करते हैं। जब आप किसी भी साधना के लिए समय देते हैं तो आपको यह सिद्धि के रूप में प्राप्त होती है।


6. सहनशीलता ही प्रगति है

किसी भी साधना को करते समय सहनशीलता की आवश्यकता होती है। जब आप ध्यान करने के लिए बैठते हैं, उस समय घर के TV में क्रिकेट मैच शायद आपको पुकार रहा हो। फिर भी यदि आप क्रिकेट को छोड़कर ध्यान करेंगे तो आपको उसमें सिद्धि मिलेगी। यह सब निर्भर करता है कि हम किसे अधिक प्राथमिकता देते हैं। हमें अपने जीवन में आने वाली किस चीज को प्राथमिकता देनी है यह हमें मालूम होना चाहिए। साधना के लिए अधिक समय दें। इस दौरान कई बाधाएँ आ सकती हैं लेकिन फिर भी यदि आप धैर्य के साथ अपनी साधना जारी रखते हैं तो आप अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे।

जब तक आपके पास सहनशीलता नहीं है, तब तक आप कोई विद्या नहीं सीख सकते। किसी भी विद्या को सीखने के लिए, चाहे वह संगीत विद्या हो या ध्यान विद्या हमें धैर्य रखने की आवश्यकता होती है।


7. अनुभव ही ज्ञान है

यदि हम धैर्य के साथ ध्यान साधना करते हैं: हम अपनी साधना में आगे बढ़ते हैं और कई चीज़ों का अनुभव करते हैं; जैसे- सूक्ष्म शरीर का स्थूल शरीर से अलग होना, महाकारण शरीर का कारण शरीर से अलग होना, कई लोकों में संचार करना। इन सभी अनुभवों को आप सहनशीलता के साथ ध्यान साधना करने से प्राप्त करते हैं। आप लोबसंग रांपा, योगानंद परमहंस, स्वामी राम और अन्य महान योगियों की किताबें पढ़ सकते हैं, जिनमें उनके अनुभव ज्ञान को दर्शाया गया है।

अगर मैं छांदोग्य उपनिषद्, मांडूक्य उपनिषद भगवद्गीता, ब्रह्मसूत्र, शंकर भाष्य जैसी किताव पढूँ और जानूँ कि 'मैं भगवान हूँ', 'मैं परब्रह्म हूं, 'देह ही देवालय है' तो यह केवल किताबी जानकारी है, यह ज्ञान नहीं हो सकता। क्योंकि जब तक मैं इसका अनुभव नहीं करता तब तक यह ज्ञान नहीं हो सकता। ज्ञान के सार को अनुभव करना ही 'अनुभव ज्ञान’ कहा जाता है।

यदि आप किताबें पढ़कर ज्ञान प्राप्त करते हैं तो उसे पांडित्य कहा जाता है। पांडित्य किताबी बात है और उसका अनुभव करना ज्ञान है, जिसका अनुभव एक योगी ही कर सकता है।


PSSM में हम पहले लोगों के पास जाते हैं और उन्हें निरंतर ध्यान अभ्यास के लिए कहते हैं। साधना करने के इस क्रम में एक दिन कुंडलिनी शक्ति जाग्रत होती है, तीसरा नेत्र खुल जाता है। कुण्डलिनी हजार फनों वाले सर्प का रूप धारण कर हमें हजार प्रकार के ज्ञान देती है। जैसे ही यह सहस्रदल कमल तक पहुँचता है, यह हमें अनंत लोकों का ज्ञान देगा। इन सबका अनुभव करना होता है। अगर आप ध्यान किए बिना बस बैठकर किताबें पढ़ेंगे तो आपको यह सब कभी पता नहीं चलेगा। ध्यान अनंत विश्वमय प्राण शक्ति देता है। इसे रोजाना थोड़ा-थोड़ा करके जमा करें। अपनी विश्व शक्ति की पूँजी को बढ़ाने के लिए हर दिन घंटों-घंटों साधना करें।

ध्यान से पहले सिद्धार्थ शुद्धोधन पुत्र थे और ध्यान के बाद गौतम बुद्ध बने। वे एक महाज्ञानी थे। अपने ध्यान अभ्यास के कारण उन्होंने सारे ज्ञान का अनुभव किया। थोड़ा ध्यान आपको थोड़ा ज्ञान देता है और ज्यादा ध्यान आपको ज्यादा ज्ञान देता है। अगर आप ध्यान नहीं करेंगे तो आपको ज्ञान की प्राप्ति ही नहीं होगी। ध्यान अनुभव को ज्ञान कहते हैं, इसलिए 'अनुभव ही ज्ञान है'। जैसे एक भ्रमर अलग-अलग फूलों से बूँद-बूँद करके अमृत इकट्ठा करता है, हम भी अपने योग मार्ग में छोटे-छोटे अनुभव प्राप्त करते हैं। अनुभव के बिना कोई ज्ञान नहीं मिलता। मुझे अपने पिछले जीवन में ही बहुत सारे ध्यान अनुभव प्राप्त हुए, इसलिए जैसे ही मैं किसी भी विषय को छूता हूँ, मुझे उसके बारे में सब कुछ आसानी से पता चल जाता है।

गौतम बुद्ध स्वयं कई जन्मों में अरिहंत थे। कई जन्मों तक वे बोधिसत्व थे और अपने इस जन्म में वे बुद्ध बने। जैसे ही उन्होंने “आनापानसति" ध्यान किया उन्हें सब कुछ मिल गया। बुद्ध की तरह ही सभी पिरामिड मास्टर हैं वे अपने पिछले जन्मों में अरिहंत थे और कुछ जीवन काल में वे बोधिसत्त्व थे और अब बुद्ध की तरह वे दूर-दराज के लोगों को भी ध्यान सिखाने के लिए यहाँ आए हैं। बुद्धत्व स्थिति को प्राप्त करने के लिए जन्मों की साधना की आवश्यकता है। इसलिए कई जन्मों के अनुभवों का एक साथ सम्मिलित होना ही ज्ञान कहलाता है।


8. दान ही धर्म है

ज्ञान प्राप्त करने के बाद हमें अपने ज्ञान का दान करना है इसलिए पिरामिड मास्टर्स सबको ‘आनापानसति ध्यान’ सिखाते रहते हैं और अपना अनुभव साझा करते रहते हैं। वस्त्रदान और अन्नदान से ज्यादा महान ज्ञानदान है। जिसके पास ज्ञान है, वे ज्ञानदान करता है इसलिए 'दान' ही धर्म है। जिसके पास संगीत का ज्ञान है, उसे संगीत दान करना है, जिसके पास पैसा है, उसे धन दान करना है। जिसको क्रिकेट आता है, उसे क्रिकेट सबको सिखाना है, जिसको खाना बनाना आता है, उसे सबको खाना बनाकर खिलाना है। अगर दूसरा व्यक्ति अपने आप ही कुछ देना चाहता है तो लेना है।

अगर आपके पास चार रोटियाँ है दो रोटियाँ दूसरों को देना हमारा धर्म है, यह दान है। किसी फल की अपेक्षा के बिना देना। दो रोटियाँ देकर आपने उसके लिए पैसा लिया तो वह दान नहीं है, वह व्यापार है। हमारे अनुभवों को दूसरों को बताया तो हमने अपना अनुभव दान किया, दान ही धर्म है। PSSM के 18 आदर्श सूत्रों में से पहला सूत्र है 'ध्यान सिखाने के लिए कोई शुल्क नहीं लेना है। ' कोई भी ध्यान सीखने आए तो निःशुल्क सिखाना है, वह 'ध्यानदान' है।


9. धर्म ही पुण्य है

ज्ञान प्राप्त करने के बाद हम ज्ञान को बाँटना शुरू करते हैं। हम अपने अनुभवों को साझा करते हैं जैसे कि मैंने ध्यान से अपना सिर दर्द ठीक किया, मैंने ध्यान करके कैंसर जैसी भयंकर बीमारी को ठीक किया, आप भी ध्यान करें, आपको मानसिक शांति मिलेगी, आपकी तीसरी आँख खुल जाएगी। यहाँ दूसरों को ज्ञान देना ही धर्म है। अपने धर्म का पालन करना पुण्य है। दान ही धर्म है और धर्म ही पुण्य है। एक भिखारी भीख माँगते हुए क्या कहता है, " बाबू धर्म करो" यानी मुझे कुछ दे दो और वही तुम्हारा धर्म है। भिखारी के पास धन और भोजन नहीं है, जो उसे धन या भोजन दे रहा है, वह उस दानी का धर्म है, यदि आप उस धर्म को करते हैं तो आपको पुण्य मिलता है।

गौतम बुद्ध को ध्यान करने के बाद ज्ञान की प्राप्ति हुई और उसके बाद उन्होंने प्राप्त किया ज्ञान लोगों को देना शुरू किया। ध्यानदान करो। बिना किसी अपेक्षा के, अपने अनुभव सभी को बताओ यही तुम्हारा धर्म है। मैं ध्यान सिखाता हूँ लेकिन पैसे नहीं लेता। क्योंकि यह मेरा धर्म है। अगर पैसा कमाना मेरा लक्ष्य होता तो मैं कोरोमंडल फर्टिलाइजर्स में काम कर सकता था। मैंने ध्यान सिखाते वक्त कोई व्यापार नहीं किया, यह ध्यानदान है। जब मैं ध्यान का दान करता हूँ तो इस दौरान कई बार लोग मुझे खाना खिलाते हैं। तो यहाँ पर परस्पर दान किया जाता है, मैं ध्यान का दान करता हूँ और वे अन्न का दान करते हैं और दोनों परस्पर अपने-अपने धर्म का पालन कर रहे हैं। 'दान ही धर्म है' 'धर्म ही पुण्य है।'

हमारी पिरामिड फिलॉस्फी में '18 आदर्श सूत्र' और 'ज्ञान नवरत्न' शामिल हैं। सभी ध्यान करते हुए और इन सूत्रों का पालन करते हुए विस्तृत रूप से ध्यान और ज्ञान प्रचार करेंगे।

(स्रोत: पिरामिड ध्यान जगत हिंदी पत्रिका)